आज़ादी दिवस, एक ऐसा दिन जो याद दिलाता है लाखों लोगो का संघर्ष, जिन्होने आज़ादी पाने के लिए ना जाने अपने जीवन के कितने वर्ष देश के लिए समर्पित कर दिए और साथ ही याद दिलाता है उन चन्द लोगो को जिन्होने तलवार की जगह बंदूक पाने के लिए ब्रिटिश चेहरों से हाथ मिलाकर देश को गुलामी की बेड़ियों में डालने का आगाज़ कर दिया था | गुलामी और आज़ादी, दोनो के ही दो प्रकार है - मानसिक और शारीरिक | जहाँ एक और ब्रिटिश राज-रजवाड़ो से राज और ज़मीदारो से ज़मीन छीन रहा था वही दूसरी और अच्छूतो और पिछड़ो को सेना में नौकरी और शिक्षा का अधिकार दे रहा था | एक और मानसिक और शारीरिक गुलामी से छुटकारा पाने के लिए अच्छूत और पिछड़े लोग ब्रिटिश को मजबूत बना रहे थे वही दूसरी और राज-रजवाड़े और ज़मींदार लालच और ताक़त के लिए मानसिक गुलाम बनते जा रहे थे | देश के लोगो की प्राथमिकतायें अलग अलग थी | कुछ गुलामी से बाहर आ रहे थे तो कुछ गुलामी की दिशा में जा रहे थे | ब्रिटिश की पहले मानसिक और फिर शारीरिक गुलाम बनाने की योजना साकार रही जिसे वो लोग समझ नही पायें थे जो अपने स्वार्थ के लिए उनसे हाथ मिला रहे थे | बंदूके और तोपें दोनो ही तलवारों से ज़्यादा प्रभावी और ताकतवर रही जिन्होने तलवारों को बहुत जल्दी घुटने टेकने के लिए मज़बूर कर दिया | धीरे-धीरे मानसिक और फिर शारीरिक गुलामी फैलने लगी जिसका विरोध होना उचित था | राज-रजवाड़ो और ज़मींदारों से शुरू होकर ये विरोध आम जनता तक फैलने लगा जिसमें युवाओ का योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा | दो शताब्दियों के बाद भारत अपने पैरों पर खड़ा हुआ और १५ अगस्त, शुक्रवार के दिन इसने अपना शीश गर्व से उठाया | शासन सत्ता बदली पर लोगो के बीच बनी ऊची-नीची , अमीर-ग़रीब, ज़मींदार-बंधुवा इत्यादि नामक विषनगतियाँ अपने पैर वैसे ही जमा रही थी | अथार्थ सत्ता परिवर्तन से गुलामी समाप्त नही होती बल्कि समाज में फैली गुलामी की प्रथा को समाप्त करने से होती है | सत्ता परिवर्तन गुलामी का रूप बदलने की ताक़त रखता है पर गुलामी को समाप्त करने की नही | भारत के संविधान के साथ २६ जनवरी १९५० को लोगो को अधिकार भी मिले जिसने मानसिक और शारीरिक गुलामी को दूर करने में भरसक योगदान दिया पर अधिकतम मालिको को अपने गुलामों को अधिकार पाना नही सुहाता | आज के लोकतांत्रिक देश में जहा एक और लोगो में समानता आयी है दूसरी और अशिक्षित लोगों के क्षेत्र में आज भी गुलामी अपने पैर जमाई हुई है | प्राथमिक ज़रूरतों के आभाव में व्यक्ति पहले मानसिक और फिर शारीरिक गुलाम बन जाता है | देश की आज़ादी जितना महत्व रखती है उतना ही व्यक्ति की आज़ादी | जब व्यक्ति खुद गुलाम हो तब उस पर देश के गुलाम होने या ना होने का कोई प्रभाव नही पड़ता अथार्थ देश की आज़ादी के साथ-साथ व्यक्ति विशेष की आज़ादी ही सच्ची आज़ादी है वरना उस व्यक्ति के लिए जो गुलामी की ज़ज़ीर में क़ैद है उसके लिए इसका कोई महत्व नही | नियम बनाने से आज़ादी नही मिलती बल्कि उसको प्रभावशाली तरीके से लागू करने से मिलती है | भारत का संविधान हर व्यक्ति को समान अधिकार देता है पर जब तक शासन उनको प्राथमिक अधिकार शिक्षा, रोज़गार और चिकित्सा नही देता तब तक ये आज़ादी पूर्ण नही है | ७० प्रतिशत से ज़्यादा ग्रामीण लोगों को जब तक ये अधिकार नही मिलेंगे तब तक ये आज़ादी अपनी आज़ादी की तलाश ज़ारी रखेगी |
- बृजमोहन वत्सल.